सियाह हाशिये
मूल लेखक (उर्दू)
सआदत हसन मंटो
सियाह-कलम मंटो और ‘सियाह हाशिए’
बलराम अग्रवाल
(पिछली सदी के सबसे चर्चित और संवेदनशील लेखक सआदत हसन मंटो ने हमारे युग के सबसे खराब दौर ‘भारत-विभाजन’ का जो दर्द बयान किया है, उसने उन्हें सदी के महान लेखकों मे शुमार कर दिया है। ‘टोबा टेकसिंह’ तो विभाजन की पीड़ा को केन्द्र में रखकर लिखी गई अपने तरह की विश्व में सम्भवत: अलग ही कहानी है। उसी तरह उनकी पुस्तक ‘सियाह हाशिए’ भी विभाजन के दौरान हुई हिंसा का विद्रूप चेहरा जिस शिद्दत और कलापूर्ण ढंग से हमारे सामने रखती है, वह आज भी मानक है। लेकिन, पुस्तक से पहले बेहद जरूरी है, मंटो के जीवन संघर्ष और विचार प्रवाह को जान लेना। ‘सियाह हाशिए’ को केन्द्र में रखकर लिखे गए इस लेख से गुज़रना…)
धरती का हर आदमी अपने आप में कुछ खूबियों और कुछ खराबियों से चालित है। गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में—
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुराण निगम अस कहहीं।।
जहँ सुमति तह सम्पति नाना। जहँ कुमति तहँ विपति निदाना॥
अर्थात, अच्छाई और बुराई हर व्यक्ति के अन्तर में निहित हैं। अब, अच्छे या बुरे, जिस भाव का आधिक्य जिसमें नजर आने लगता है, वैसा ही वह कहलाने लगता है। लेकिन व्यक्ति के भीतर के अच्छेपन या बुरेपन का आकलन करने वाली नजर का इस योग्य होना अनिवार्य है, हर आदमी के बूते का यह आकलन नहीं है। ‘सियाह हाशिये’ की लघुकथाओं पर बात करने से पहले बेहतर होगा कि हम उसके रचनाकार उर्दू कथाकार सआदत हसन मंटो के बारे में दो-चार ज़रूरी बातें जान लें। मंटो उम्रभर अपने खिलाफ ऐसे तंग-दिलोदिमाग लोगों की कारगुजारियों से टकराते और आहत होते रहे, जो उनके काम का आकलन करने के योग्य कभी थे ही नहीं। एक जगह मुहम्मद हसन असकरी ने मंटो के कम शिक्षित होने का जिक्र यों किया है—‘अब इसे क्या कहें कि आठवीं और नवीं दहाई के अफ़सानानिगारों के सीमित ज्ञान का पता न तो आलोचकों को है, न खुद अफसानानिगारों को; कि जिस बरस अपने अफसाने लिखने शुरू करते हैं, उसी बरस पुस्तक छपवा लेते हैं और उसी बरस अपनी अफ़सानानिगारी पर दो-तीन लेख लिखवा लेते हैं; उसी बरस किसी उर्दू ऐकेडमी से इनाम हासिल कर लेते हैं और फिर उसी बरस मर जाते हैं।’
क्या यह कम आश्चर्य की बात है कि इन मुहम्मद हसन असकरी ने ही ‘हाशिया आराई’ शीर्षक से ‘सियाह हाशिए’ की भूमिका लिखी थी।
मंटो का जन्म लुधियाना जिले के समराला नामक स्थान में 11 मई, 1912 को एक कश्मीरी मुस्लिम परिवार में हुआ था। वह अपने पिता की दूसरी बीवी की आखिरी सन्तान थे। उनके तीन सौतेले भाई भी थे जो उम्र में उनसे काफी बड़े थे और विलायत में तालीम पा रहे थे। वह उनसे मिलना और बड़े भाइयों जैसा सुलूक पाना चाहते थे, लेकिन यह सुलूक उन्हें तब मिला जब वह साहित्य की दुनिया के बहुत बड़े स्टार बन चुके थे।
अपने बड़े भाइयों से एकदम उलट, मंटो का मन स्कूली-पढ़ाई में बिल्कुल भी नहीं लगता था। यही वजह थी कि मेट्रिक में लगातार तीन बार फेल होने के बाद उसे वह सन 1931 में पास कर सके, यानी कि 19 बरस की पकी उम्र में। आल इंडिया रेडियो में काम करते हुए वह दिल्ली में रहे और उस दौरान उन्होंने लगभग 100 रेडियो-नाटक लिखे। अगस्त 1942 में, करीब 19 माह दिल्ली में रहने के बाद वह बंबई पहुँच गए। और बंबई को मंटो ने इस कदर जिया कि 28 अक्टूबर, 1951 को अपने ऊपर आक्षेप के जवाब में अपने एक बयान में उन्होंने कहा था—‘वहाँ (बंबई में) बारह बरस रहने के बाद जो कुछ मैंने सीखा, यह उसी का बायस है कि मैं यहाँ पाकिस्तान में मौजूद हूँ। यहाँ से कहीं और चला गया तो वहाँ भी मौजूद रहूँगा—मैं चलता-फ़िरता बंबई हूँ। मैं जहाँ भी क़याम करूँगा, वहीं मेरा अपना जहान आबाद हो जाएगा।’
यह वाकई गौर करने वाला बयान है। दिल्ली से बंबई पहुँचे मंटो ने बंबई को समझा और (खुद) चलता-फिरता बंबई बन गया। यह बात पाकिस्तान के नागरिकों की समझ में न आ सकी।
एक इंसान के तौर पर मंटो की परेशानी शायद यह रही कि विभाजन के बाद उन्होंने अपने आपको महज मुसलमान महसूस किया और पाकिस्तान को ही उन्होंने अपना मुल्क समझा। वहाँ की आबो-हवा में वह असंगत विचारों को भी सहज ही स्वीकार लेने वाला भारतीय संस्कार तलाशते रहे। पाकिस्तान पहुँचकर वह प्रगतिशीलता का नकाब पहनकर साहित्य की जमीन पर जमे बैठे कट्टरपंथियों में इंसानियत से सरोकारों के अंकुर तलाशते रहे और ताउम्र असफल रहे। उन्हें बार-बार यह सफाई पेश करनी पड़ी कि ‘मुझे आप अफ़सानानिगार की हैसियत से जानते हैं और अदालतें एक फ़हशनिगार(अश्लील लेखक) की हैसियत से। हुकूमत कभी मुझे कम्युनिस्ट कहती है और कभी मुल्क का बहुत बड़ा अदीब।…मैं पहले भी सोचता था और अब भी सोचता हूँ कि मैं क्या हूँ और इस मुल्क में, जिसे दुनिया की सबसे बड़ी इस्लामी सल्तनत कहा जाता है, मेरा क्या मकाम(स्थान) है, मेरा क्या मस्रिफ़(उपयोग) है।…आप इसे अफ़साना कह लीजिए, मगर मेरे लिए, यह एक तल्ख हक़ीक़त(कड़वी सच्चाई) है कि मैं अभी तक खुद अपने मुल्क में, जिसे पाकिस्तान कहते हैं और जो मुझे बहुत अज़ीज़ है, अपना सही मकाम तलाश नहीं कर सका। यही वजह है कि मेरी रूह बेचैन रहती है। यही वजह है कि मैं कभी पागलखाने में और कभी हस्पताल में होता हूँ।
अपनी इस बेचैनी की एक खास वजह बताते हुए वह लिखते हैं—‘हमारी हुकूमत मुल्लाओं को भी खुश रखना चाहती है और शराबियों को भी। मज़े की बात यह है कि शराबियों में कई मुल्ला मौजूद हैं और मुल्लाओं में अक्सर शराबी।
एक लेखक के तौर पर मंटो की विशेषता यह है कि अहसास के शुरुआती छोर से लेकर उसके आखिरी छोर तक वह न तो मुसलमान है, न हिन्दू, न कश्मीरी और न पंजाबी; इंसान है, सिर्फ़ इंसान। अपराध और दंड, अच्छाई और बुराई की वे तमाम धारणाएँ जो सदियों से हमारे समाज में प्रचलित रही हैं, मंटो उन्हें रद्द करता है।…मंटो की चेतना में मनुष्यों की समानता की एक ताक़तवर लहर उस चेतना की जीवन-रेखा के रूप में हमेशा सक्रिय रही। वह जीवन के किसी भी अनुभव, मानव-अस्तित्व की किसी भी अभिव्यक्ति से न तो कभी भयभीत होता है और न ही उससे घृणा और ऊब का प्रदर्शन करता है।
‘अदबे-लतीफ़’ (नया साहित्य) के वार्षिकांक(1944) में प्रकाशित 1 जनवरी, 1944 को लिखित अपने लेख ‘अदबे-जदीद’(आधुनिक साहित्य) में मंटो ने लिखा है: “जिस नुक्स को मेरे नाम से मंसूब किया(जोड़ा जाता) है, दरअसल मौजूदा निज़ाम का नुक़्स है—मैं हंगामापसंद नहीं। मैं लोगों के खयालातो-जज़्बात में हैजान(उबाल) पैदा करना नहीं चाहता। मैं तहज़ीबो-तमद्दुन की और सोसाइटी की चोली क्या उतारूँगा जो है ही नंगी। मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता, इसलिए कि यह मेरा काम नहीं, दर्जियों का है। लोग मुझे सियाह-क़लम कहते हैं, लेकिन मैं तख्ता-ए-सियाह पर काली चाक से नहीं लिखता, सफेद चाक इस्तेमाल करता हूँ कि तख्ता-ए-सियाह की सियाही और-भी ज़्यादा नुमायाँ हो जाए।”
बहुत कम लोग जानते होंगे कि ‘सियाह हाशिये’ पर प्रगतिशील उर्दू लेखकों व आलोचकों के कड़वे रवैयों ने मंटो को अंतहीन दिमागी तकलीफ़ दी और उसमें बेहिसाब गुस्सा पैदा किया। उस तकलीफ़ और उस गुस्से को जाने बिना मंटो और उनके ‘सियाह हाशिये’ को समझना लगभग असम्भव है। अपनी बारहवीं किताब ‘यज़ीद’ की भूमिका ‘ज़ैबे-कफ़न’(क़फ़न का गला) में इस तकलीफ़ और गुस्से का उन्होंने काफी खुलासा किया है। वह लिखते हैं—‘मुल्क के बँटवारे से जो इंकिलाब बरपा हुआ, उससे मैं एक अरसे तक बाग़ी रहा और अब भी हूँ…मैंने उस खून के समन्दर में गोता लगाया और चंद मोती चुनकर लाया— अर्के-इन्फ़िआल(लज्जित होने पर छूटने वाले पसीने) के और मशक़्क़त(श्रम) के, जो उसने अपने भाई के खून का आखिरी क़तरा बहाने में सर्फ़(खर्च) की थी; उन आँसुओं के, जो इस झुँझलाहट में कुछ इंसानों की आँखों से निकले थे कि वह अपनी इंसानियत क्यों खत्म नहीं कर सके! ये मोती मैंने अपनी किताब ‘सियाह हाशिये’ में पेश किए।…यकीन मानिए कि मुझे उस वक्त दुख हुआ, बहुत दुख हुआ, जब मेरे चंद हमअस्रों(समकालीनों) ने मेरी इस कोशिश(‘सियाह हाशिये’) का मज़हका उड़ाया(निंदा की, उपहास किया)। मुझे लतीफ़ाबाज या वा गो (हाय-हाय चिल्लानेवाला), सनकी, नामाकूल(अशिष्ट) और रज़अतपसंद(जिसके विचारों में प्रगतिशीलता न हो) कहा गया। मेरे एक अज़ीज़ दोस्त ने तो यहाँ तक कहा कि मैंने लाशों की जेबों में से सिगरेट के टुकड़े, अँगूठियाँ और इसी किस्म की दूसरी चीजें निकाल-निकालकर जमा की हैं।…मैं इंसान हूँ। मुझे गुस्सा आया।…मुझे गुस्सा था कि इन लोगों को क्या हो गया है—यह कैसे तरक्कीपसन्द हैं, जो तनज्जुल(पतन) की ओर जाते हैं; यह इनकी सुर्खी(लाली) कैसी है जो सियाही की तरफ दौड़ती है…मुझे गुस्सा था, इसलिए कि मेरी बात कोई भी नहीं सुनता था—तक़सीमे-मुल्क़ के बाद मुल्क(यानी पाकिस्तान) में इफ़्रातो-तफ़्रीत(तारतम्य बैठाने) का आलम था। जिस तरह लोग मकान और मिलें अलाट करवा रहे थे, उसी तरह वह बुलंद मकामों पर भी कब्ज़ा करने की जद्दोजहद में मसरूफ़ थे।’
उर्दू प्रगतिशीलों के हाथों ‘सियाह हाशिये’ की फ़जीहत का दर्द मंटो ने अपने कहानी-संग्रह ‘चुग़द’ की भूमिका में भी उँड़ेला है—‘मेरी किताब ‘सियाह हाशिये’ तरक़्क़ीपसंदों ने सिर्फ़ इसलिए नापसंद की कि इस पर दीबाचा(भूमिका) हसन असकरी का था—चुनांचे अली सरदार ने हस्बे-मामूल बड़े खुसूस और मुहब्बत के साथ मुझे लिखा: ‘यहाँ लाहौर से मेरे पास एक खबर आई है कि तुम्हारी किसी नई किताब पर हसन असकरी मुक़दमा(भूमिका) लिख रहे हैं। समझ में नहीं आ सका, तुम्हारा और हसन असकरी का क्या साथ है? मैं हसन असकरी को बिलकुल मुख्लिस(निश्छल) नहीं समझता।’ ‘तरक़्क़ीपसन्दों की खबर-रसानी का सिलसिला और इंतजाम काबिले-दाद है। यहाँ की खबरें खेतवाड़ी के ‘क्रेमलिन’ में बड़ी सेहत से यूँ चुटकियों में पहुँच जाती हैं—अली सरदार को यहाँ से जो खबर मिली, बड़ी मोतबर(विश्वसनीय) थी; चुनांचे नतीजा यह हुआ कि ‘सियाह हाशिए’ प्रेस की सियाही लगने से पहले(यानी कि छपने से पहले) ही रूसियाह(काला मुँह) करके रजअतपसंदी(प्रतिक्रियावाद) की टोकरी में फेंक दी गई।’
अब जरा ‘सियाह हाशिये’ के इस समर्पण पर गौर फ़रमाएँ:
उस आदमी के नाम
जिसने अपनी खूँरज़ियों का ज़िक्र करते हुए कहा:
“जब मैंने एक बुढ़िया को मारा तो मुझे ऐसा लगा,
मुझसे क़त्ल हो गया है!”
‘सियाह हाशिये’ की अधिकतर रचनाओं को पढ़ने के बाद पता चलता है कि ‘मंटो के इंसानी सरोकार और अनुभव केवल उच्छृंखल मर्दों और गिरी हुई औरतों की नीच भावनाओं तक सीमित नहीं हैं।’ हाँ, इतना ज़रूर है कि ‘सियाह हाशिये’ की सभी 32 कथाएँ, यहाँ तक कि उसका समर्पण भी, भारत-विभाजन के वक़्त हुई घिनौनी घटनाओं पर ही आधारित हैं। शायद इसीलिए ‘सआदत हसन मंटो दस्तावेज़’ के संपादकद्वय ने उन सबको ‘एक ही अफ़सानचा’ माना है। एक पूरी पुस्तक में सिर्फ़ एक अफ़साना हो, यह सम्भव है; लेकिन 32 अलग-अलग कहानियों को एक ही कहानी ‘मानना’ बिल्कुल वैसा ही तकलीफ़देह है जैसाकि मंटो के जीवित रहते उर्दू-प्रगतिशीलों द्वारा इस पुस्तक को नकारने की साजिश रचना था। ‘सियाह हाशिये’ की कितनी और कौन-कौन-सी रचनाएँ लघुकथा के पैमाने पर खरी उतरती हैं, यह अलग बात है; महत्वपूर्ण बात यह है कि कथाकार की दृष्टि से मंटो लघुकथा के ‘सिर्फ़ डाइग्नोस’ सिद्धान्त का मजबूत पैरोकार है। वह कहता है: “हम मर्ज़ बताते हैं, लेकिन दवाखानों के मुहतमिम(प्रबंधक) नहीं हैं…”
मंटो मनोवैज्ञानिक वास्तविकताओं के वर्णन की मर्यादाओं से अच्छी तरह परिचित थे और यह जानते थे कि सच्चाई केवल सतह पर तैरती हुई वास्तविकताओं की खोज तक सीमित नहीं होती।…मोपासां की तरह मंटो को भी इस बात में मज़ा आता था कि इंसान की वहशियाना भावनाएँ इस तरह नंगी की जाएँ कि पढ़ने वाला चौंक उठे।
लघुकथा में ‘चौंक’ का ‘छौंक’ लगाने के हिमायती आज भी अनगिनत हैं; लेकिन समकालीन लघुकथा को स्तरीयता और प्रभावपूर्णता प्रदान करने वाले तत्वों में ‘चौंक’ का स्थान गौण ही है, प्रमुख नहीं। ‘सियाह हाशिये’ की रचनाओं के माध्यम से आप मंटो के मानवीय-सरोकार और मानव-मनोविज्ञान संबंधी उनकी समझ का आकलन भी काफ़ी हद तक कर सकते हैं। अधिकतर, होता यह है कि लोग दोहरा चरित्र जीते हैं। सामान्य जीवन में कुछ-और होते हैं और लेखकीय जीवन में कुछ-और। मंटो की विशेषता यह है कि वह, सामान्य और सृजनात्मक, दोनों प्रकार के जीवन को एक संतुलन के साथ मिलाकर जीते हैं। शायद यही कारण है कि अपने सामान्य जीवन में सृजनात्मकता के कारण उन्हें कई कष्ट भी झेलने पड़े। अस्तित्व की एकता में उनका विश्वास इतना पक्का था और उस परिवेश के प्रति जिसमें वह पले-पढ़े और बढ़े, उनमें इतना लगाव भरा हुआ था कि ‘जिंदगी के आखिरी सात बरसों में मंटो ने हमेशा पंजाबी में बात की। मंटो कहता था: ‘जब मैं उर्दू में बोलता हूँ तो लगता है, झूठ बोल रहा हूँ…’ और ‘…जब मैं उर्दू बोलता हूँ तो मेरा जबड़ा दुखने लगता है।’
क्या यह बयान मंटो का अपने जन्मस्थान, अपनी मातृभाषा के प्रति असीम लगाव से लबालब नहीं है?
‘दस्तावेज़’ के संपादकद्वय ने ‘सियाह हाशिये’ को एक कहानी मानते हुए ‘मक़्तल’ (क़त्ल करने की जगह) शीर्षक तले संग्रहीत किया है। जबकि ‘सियाह हाशिये’ पाकिस्तान में बस जाने के बाद मंटो की तीसरी किताब थी जो ‘मकतबा-ए-जदीद’ से प्रकाशित हुई। सन् 1951 तक यह उनकी सातवीं किताब थी। विभाजन की त्रासदी को निहायत ईमानदार गहराई के साथ व्यक्त करने वाली उनकी विश्वस्तरीय कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ भी इसी दौरान लिखी गई। वीभत्सता, उलझन, बेज़ारी, नफ़रत, दुख और क्रोध की बजाय मंटो कहीं-कहीं तो थोड़े दुख-भरे मसखरेपन के साथ मानव की दुरावस्था का तमाशा देखता है और इस दुरावस्था में छिपे सच की ताक़त के ऐसे बोध का प्रमाण देता है, जिसे किसी दूसरे बाहरी सहारे की जरूरत नहीं होती—छोटी-छोटी बातों में वह एक गहरी मानवीय-त्रासदी का पता लगाता है।…एक ऐसे दौर में, जब इंसान वहशी बन गया था और निहत्थे कमजोर बच्चे, बूढ़े, औरतें जानवरों की तरह ज़िबह किए जा रहे थे, केवल रक्तपात और विनाश के वर्जन या उनके विश्लेषण के आधार पर सच्ची कहानियाँ नहीं लिखी जा सकती थीं। उस त्रासदी की सच्चाई तक पहुँचने और उसे एक रचनात्मक सच्चाई का रूप देने के लिए, अपने अस्तित्व और अपने परिवेश के बीच एक दूरी, अपनी तबीयत में एक निढालपन की जगह एक संगीनी(गंभीरता) पैदा करने की जरूरत थी।
जारी है……